बीजेपी नेता को जज बनाये जाने के मामले में सुप्रीम कोर्ट सुनवाई को तैयार - IAMC
सुप्रीम कोर्ट

अल्पसंख्यक विरोधी बीजेपी नेता को जज बनाये जाने के मामले में सुप्रीम कोर्ट सुनवाई को तैयार

सोशल मीडिया के मुताबिक बीजेपी महिला मोर्चे की राष्ट्रीय महासचिव और प्रधानमंत्री मोदी के समर्थन में ख़ुद को ट्विटर पर चौकीदार लिखने वाली वकील लक्ष्मणा विक्टोरिया गौरी को जज बनने से रोकने की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट सुनवाई के लिए तैयार हो गया है। मद्रास हाईकोर्ट में एडीशनल जज बतौर उनकी नियुक्ति के लिए सुप्रीम कोर्ट के कॉलेजियम ने ही सिफ़ारिश की थी।

मद्रास हाईकोर्ट के वकीलों के समूह ने आरोप लगाया है कि गौरी बीजेपी की सदस्य हैं। साथ ही, यह भी कहा है कि उन्होंने इस्लाम और ईसाई धर्म के प्रचार और विस्तार के तरीकों पर एक से ज़्यादा आपत्तिजनक लेख लिखे हैं। चीफ जस्टिस डी।वाई चंद्रचूड़ इस मामले पर 7 फरवरी को सुनवाई करेंगे।

सुप्रीम कोर्ट के कॉलेजियम ने मद्रास हाईकोर्ट की तरफ से भेजे गए नामों में विक्टोरिया गौरी समेत 8 नाम चुने थे और उन्हें सरकार के पास से भेजा था। उनमें से 5 लोगों को 2 साल के लिए मद्रास हाई कोर्ट का एडिशनल जज नियुक्त करने की अधिसूचना सोमवार (6 फरवरी) को जारी कर दी गई।

मद्रास हाईकोर्ट के वकीलों ने कॉलेजियम की तरफ से विक्टोरिया गौरी की सिफारिश सरकार को भेजे जाने के बाद पत्र लिखकर विरोध जताया था। याचिकाकर्ता के वकीलों की तरफ से वरिष्ठ वकील राजू रामचंद्रन ने 6 फरवरी को सुप्रीम कोर्ट में मामला रखा। शुरू में चीफ जस्टिस ने शुक्रवार (10 फरवरी) को सुनवाई की बात कही, लेकिन थोड़ी देर बाद राजू रामचंद्रन फिर से कोर्ट में पेश हुए। उन्होंने बताया कि सरकार ने विक्टोरिया गौरी को जज नियुक्त करने की अधिसूचना जारी कर दी है। इसलिए, मामले पर तुरंत सुनवाई जरूरी है। इस पर चीफ जस्टिस ने कहा कि उनके नाम की सिफारिश करने के बाद कुछ सामग्री कॉलेजियम की जानकारी में आई है। कॉलेजियम ने भी उस पर संज्ञान लिया है। हम कल ही यह मामला सुनेंगे। इसके लिए एक बेंच का गठन किया जाएगा।

 

पाँच सौ से ज़्यादा शिक्षाविदों और वैज्ञानिकों ने बीबीसी डॉक्यूमेंट्री पर बैन का किया विरोध

गुजरात नरसंहार के पीछे नरेंद्र मोदी के हाथ की बात सामने लाने वाली बीबीसी की डॉक्यूमेंट्री पर बैन लगाये जाने का विरोध बढ़ता ही जा रहा है। पाँच सौ से अधिक भारतीय वैज्ञानिकों और शिक्षाविदों ने बीबीसी डॉक्यूमेंट्री पर रोक लगाने के लिए केंद्र सरकार की आलोचना करते हुए एक बयान जारी किया है  जिसमें इस कदम को भारत की संप्रभुता और अखंडता को कम करने वाला बताया गया है। उन्होंने कहा है, ‘इंडिया: द मोदी क्वेश्चन’ नामक दो भागों वाली डॉक्यूमेंट्री को हटाना समाज और सरकार के बारे में जरूरी सूचना तक पहुंच और उस पर चर्चा के भारतीय नागरिकों के अधिकार का उल्लंघन है।

बयान में कहा गया है, “हम दो कड़ियों वाली बीबीसी की डॉक्यूमेंट्री ‘इंडिया: द मोदी क्वेश्चन’ की सेंसरशिप से हताश हैं। भारत सरकार ने इस बहाने सोशल मीडिया से डॉक्यूमेंट्री को हटा दिया है कि यह ‘भारत की संप्रभुता और अखंडता को कमजोर कर रही है।”

वैज्ञानिकों और शिक्षाविदों ने कहा, ‘देश भर के विश्वविद्यालय प्रशासनों ने डॉक्यूमेंट्री की स्क्रीनिंग को रोकने की कोशिश की है। यह शैक्षणिक स्वतंत्रता के सिद्धांत का उल्लंघन करता है। विश्वविद्यालयों को सामाजिक और राजनीतिक प्रश्नों पर खुली चर्चा को प्रोत्साहित करना चाहिए।

बयान के मुताबिक, लोकतांत्रिक समाज के ठीक ढंग से कार्य करने के लिए ऐसी चर्चाएं महत्वपूर्ण हैं। कुछ विचारों की अभिव्यक्ति को सिर्फ इसलिए अवरुद्ध करना क्योंकि वे सरकार की आलोचना करते हैं, विश्वविद्यालयों के लिए अस्वीकार्य है।’

वैज्ञानिकों और शिक्षाविदों ने कहा, “जो लोग 2002 में गुजरात में हिंसा को प्रोत्साहित करने में सहायक थे, उन्हें कभी भी जिम्मेदार नहीं ठहराया गया। यह जवाबदेही महत्वपूर्ण है, न केवल ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति को रोकने के लिए बल्कि उस सांप्रदायिक ध्रुवीकरण को उलटने के लिए भी, जिससे देश के दो फाड़ होने का खतरा है। इसलिए बीबीसी की डॉक्यूमेंट्री में उठाए गए सवाल अहम हैं। फिल्म पर प्रतिबंध लगाना इस हिंसा के पीड़ितों की आवाज को दबाएगा।”
 

दिल्ली की अदालत ने कहा कि पुलिस ने मुस्लिम नौजवानों को बनाया बलि का बकरा

दिल्ली की एक अदालत ने राष्ट्रीय राजधानी के जामिया नगर हिंसा मामले में छात्र कार्यकर्ता शरजील इमाम, सफूरा जरगर और आसिफ इकबाल तनहा सहित 11 लोगों को आरोपमुक्त कर दिया। अदालत ने कहा कि चूंकि पुलिस वास्तविक अपराधियों को पकड़ पाने में असमर्थ रही और इसलिए उसने इन आरोपियों को बलि का बकरा बना दिया।

जामिया नगर इलाके में दिसंबर 2019 में नागरिकता (संशोधन) अधिनियम (सीएए) के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे लोगों और पुलिस के बीच झड़प के बाद भड़की हिंसा के संबंध में एक प्राथमिकी दर्ज की गई थी। अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश अरुल वर्मा ने कहा कि माना जा सकता है कि घटनास्थल पर बड़ी संख्या में प्रदर्शनकारी थे और भीड़ के भीतर कुछ असामाजिक तत्व व्यवधान और तबाही का माहौल बना सकते थे। उन्होंने कहा, ‘हालांकि, विवादास्पद सवाल बना हुआ है- क्या इन आरोपी व्यक्तियों की मिलीभगत के प्रथमदृष्टया कोई प्रमाण हैं? इसका उत्तर स्पष्ट नहीं है।’

अदालत ने कहा कि 11 अभियुक्तों के खिलाफ कानूनी कार्यवाही ‘लापरवाही और दंभपूर्ण तरीके से’ शुरू की गई थी और ‘उन्हें लंबे समय तक चलने वाली अदालती कार्यवाही की कठोरता से गुजरने की अनुमति देना देश की आपराधिक न्याय प्रणाली के लिए अच्छा नहीं है।’

इंडियन एक्सप्रेस के अनुसार, जज ने यह भी उल्लेख किया कि अभियोजन पक्ष ने ‘गलत तरीके से चार्जशीट’ दायर की थी जिसमें पुलिस ने मनमाने ढंग से ‘प्रदर्शनकारी भीड़ में से कुछ लोगों को आरोपी और अन्य को पुलिस गवाह के तौर पर चुन लिया’ था। अदालत ने कहा कि ‘इस तरह से चुना जाना’ निष्पक्षता के सिद्धांत के लिए हानिकारक है।

न्यायाधीश वर्मा ने कहा, ‘असहमति अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार का विस्तार है। इस तरह की पुलिस कार्रवाई उन नागरिकों की स्वतंत्रता के लिए हानिकारक है, जो शांतिपूर्ण ढंग से इकट्ठा होने और विरोध करने के अपने मौलिक अधिकार का इस्तेमाल करना चाहते हैं। प्रदर्शनकारी नागरिकों की स्वतंत्रता को हल्के ढंग से बाधित नहीं किया जाना चाहिए।’

न्यायाधीश ने कहा कि यह बताने के लिए कोई प्रथमदृष्टया सबूत नहीं था कि आरोपी व्यक्ति हिंसा करने वाली भीड़ का हिस्सा थे, न ही वे कोई हथियार दिखा रहे थे न पत्थर फेंक रहे थे। उन्होंने पुलिस से कहा, ‘निश्चित रूप से अनुमानों के आधार पर अभियोजन शुरू नहीं किया जा सकता है और चार्जशीट तो निश्चित रूप से ही संभावनाओं के आधार पर दायर नहीं की जा सकती है।’

अदालत ने यह भी कहा कि पुलिस को आरोपी व्यक्तियों को ‘बलि का बकरा’ बनाने और उनके खिलाफ आरोप साबित करने के लिए संसाधन जुटाने के बजाय विश्वसनीय खुफिया जानकारी जुटानी चाहिए और जांच के लिए टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल करना चाहिए। ऐसे लोगों के खिलाफ झूठे आरोपपत्र दायर करने से बचा जाना चाहिए था, जिनकी भूमिका केवल एक विरोध का हिस्सा बनने तक ही सीमित थी।
 

पर्सनल लॉ बोर्ड ने समान नागरिक संहिता को बताया संविधान के ख़िलाफ़

ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने समान नागरिक संहिता का विरोध करते हुए सरकार से इसका इरादा छोड़ने का अनुरोध किया है। रविवार को लखनऊ मे हुई बोर्ड की बैठक में कहा गया कि देश के संविधान में हर व्यक्ति को अपने धर्म पर अमल करने की आजादी है। बोर्ड ने इसके अलावा सभी से देश में फैल रही नफरत की आग को बुझाने की कोशिश करने की भी अपील की।

मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के अध्यक्ष मौलाना सैयद राबे हसनी नदवी की अध्यक्षता में नदवतुल उलेमा लखनऊ में हुई संगठन की कार्यकारिणी बैठक में समान नागरिक संहिता सहित विभिन्न मुद्दों को लेकर प्रस्ताव पारित किया गया।

बोर्ड ने अपने प्रस्ताव में यह भी कहा, ‘देश के संविधान में बुनियादी अधिकारों में हर व्यक्ति को अपने धर्म पर अमल करने की आजादी दी गई है, इसमें पर्सनल लॉ शामिल है। इसलिए हुकूमत से अपील है कि वह आम नागरिकों की मजहबी आजादी का भी एहतराम करे, क्योंकि समान नागरिक संहिता लागू करना अलोकतांत्रिक होगा।’

द हिंदू के मुताबिक, बोर्ड ने प्रस्तावित समान नागरिक संहिता का विरोध करते हुए तर्क दिया है कि यह ‘संविधान की भावना के खिलाफ’ होगा। एक आधिकारिक बयान में बोर्ड ने कहा, ‘समान नागरिक संहिता को लागू करने से नागरिक, व्यक्तिगत कानूनों द्वारा प्राप्त विशेषाधिकारों से वंचित हो जाएंगे।’